यह ईशा और वरुण की कहानी है, कहानी क्या, कहानी के दो एपिसोड हैं। टी.वी.
सीरियलों के एपिसोड जैसे एपिसोड नहीं, जहाँ घटनाएँ कछुवा-चाल चलती एक स्थिति
से दूसरी स्थिति तक पहुँचने में इतना फुटेज लेती हैं कि दर्शक वक्त की बरबादी
पर या तो खीझ कर रिमोट का बटन बंद कर ले या सीरियल बनाने वालों की टी.आर.पी.
बढ़ाने की लाभमूलक बचकानी कोशिशों को कोसता हुआ एक चैनल से दूसरा चैनल बदलता
रहे।
लेकिन यह कहानी है, सीरियल नहीं। ईशा-वरुण की कहानी, जो कहीं हॉरिजेंटल लाइन
पर चलती है, तो कहीं वर्टिकल लाइन पर। चल तो ठीक-ठाक ही रही थी। बीच में यह
छोटा-मोटा पहाड़-सा स्पीड ब्रेकर न आता, तो कहानी यों बीच सड़क पर खामखाह अटक
न जाती।
ऐसा नहीं है कि उनकी गाड़ी हमेशा, लिश्कारे मारती तारकोली हाइवे पर, पानी पर
बहती नाव-सी, बेरोक दौड़ती रही। कहीं-कहीं रोड़ी-बजरी के ढूहों, कीचड़ के
डबरों और छोटे-बड़े खड्डों से गुजरते, धच्चके खाते बीहड़ रास्ते भी उन्होंने
पार किए है। मुंबई आने तक तो वे खासे मेच्योर हो गए हैं। अपनी नई दुनिया के
ऊँचे कंगूरों पर नजरें टिकाए, जब वे मैरीन ड्राइव से लगी खुली सड़कों से
गुजरते हैं, तो मर्सडीज, वी.एम.डब्ल्यू. और सी-फेस्ट पॉश अपार्टमेंट की बातें
करते भी यही नहीं भूलते कि यहीं आस-पास, तंग गलियारों, सड़े फलों, सब्जियों,
कचरे के ढेरों के पड़ोस में चालों-झुग्गियों में रहने वाले लोग भी हैं, जो
शायद उनकी तरह ही खुशहाल जिंदगी के सपने देखते होंगे। उन्हें देखकर कुछ देर के
लिए उनका मूड ऑफ हो जाता, पर वे प्रेक्टिकल युवा हैं, जानते हैं। जहाँ पाँच
सितारा, सात सितारा होटल और मल्टीनेशनल कंपनियाँ होंगी, वहाँ धारावी की
बस्तियाँ रहेंगी ही रहेंगी।
ऐसे में उनकी गाड़ी की रफ्तार कुछ कम भले हो जाती, पर रुकती-अटकती नहीं।
दरअसल रुकने-अटकने का न तो वक्त उनके पास है, न ही कोई इरादा। उन्हें बहुत दूर
जाना था। अब यह किसे मालूम था कि अचानक यह माथाफोड़ पहाड़ सा गतिरोधक बीच राह
अड़ जाएगा।
पहले वरुण ने कोशिश की गाड़ी को आगे खींच निकालने की, फिर ईशा ने। वरुण ने
रुक-रुककर इंजन चालू किया, गियर दाएँ-बाएँ, आगे-पीछे कर क्लच दबाया। कोशिश की,
बहला-फुसला कर गाड़ी आगे बढ़ा दें, पर गाड़ी जो अटक गई तो ढीठता की हदें पार
कर स्पीड ब्रेकर से चिपकी रही। ईशा को गुस्सा आया। वह हार मानने वाली नहीं।
वरुण ने गाड़ी छोड़कर पैदल-पाँव गतिरोधक पार कर गया। ईशा ने खूब जोर लगाकर
क्लच दबाया, इंजन पर जोर मारा, गाड़ी आक्रोश में उछली और जबरदस्ती से
क्रीच-क्रेंच कर चीखी और मुँह फुलाकर धप्प से बैठ गई। ईशा ने तय किया कि किसी
दूसरे से मदद लेकर गाड़ी आगे बढ़ाई जाए। एक-दो बंदे मिलें, तो धक्का मारकर
मैकेनिक की दुकान तक पहुँचना होगा, जोर-जबर से कहीं एक्सेल-वेक्सल न टूट गया
हो।
यहाँ तोता-मैना की यह जोड़ी दो दिशाओं में मुड़ गई। तोता-मैना की यह जोड़ी
आई.आई.टी., आई.आई.एम के धाँसू लेबलों से लैस, कारपोरेट कंपनियों में अच्छे
पदों पर काम कर रही है, यानी अच्छे पे-पैकेज वाले जिम्मेदार पदों पर। वरुण
बैकिंग में चला गया है। कुछेक माह ही एनेलिस्ट रहा, फिर एसोसिएट हो गया। काम
को गंभीरता से लेता है। जल्दी ही वी.पी. बनने के चांसेज हैं। ईशा की किस्मत भी
कम अच्छी नहीं। उसने आ.टी. कंपनी ज्वाइन की। इंफोसिस में सॉफ्टवेयर इंजीनियर
की नौकरी मिली, एकाध साल में ही टीम लीडर बन गई।
दरअसल दोनों का सेलेक्सन कैंपस में ही हुआ था। बाद में तो इंटरव्यू औपचारिक ही
था। अपनी-अपनी कंपनियों की तरफ से दोनों ट्रेनिंग के लिए विदेश भेजे गए। एक
न्यूयार्क, दूसरा जर्मनी। दूरियों के बावजूद वहाँ भी दोनों ने एकाध वीक एंड
साथ मनाया। मैं यह बताना भूल गई कि दोनों की दोस्ती दसेक वर्ष पुरानी है।
शुरुआत तो सोलह मैं सत्रह वाली स्कूली उम्र से ही हुई थी। जिसे पहले-पहले
इन्फैचुयेशन भले ही मानें, स्टडी दोस्ती के चलते वह 'प्यार' में बदल ही जाती
है।
तब पढ़ाई के दौरान, स्कूल के साथ रहने पर भी, घर जाकर आधी-आधी रात तक मोबाइल
पर गुटरगूँ होती रहती। मध्यवर्गीय परिवारों में, महानगरों की रिहायिशों में
बच्चों को अलग-अलग बेडरूमों की सुविधा भले ही न हो, पर छोटे-बड़े ड्राइंग रूम,
कोरिडोर गैलरी-वैलरी तो रहते ही हैं। आधी रात, जहाँ गुपचुप अँधेरा लेटा रहता
हो, वहाँ सुगबुगाहटों भरी रोशनियाँ दिख जाएँ, तो बच्चों के मम्मी-डैडी चौंक-से
जाते हैं। तब थोड़ी ताक-झाँक और थोड़ी पूछताछ भी होती। मध्यवर्गीय मानसिकता के
डर और शंकाएँ बड़ों को चैन भी कहाँ लेने देती हैं? कहीं गलत सोहबत में तो नहीं
पड़े बच्चे?
लेकिन बच्चे अब बड़े होने की दहलीज पर खड़े थे। उनके पास हर शंका का समाधान
था। वे बड़े भोलेपन से घरवालों को आश्वस्त कर देते कि सब सही सलामत है। कभी
परीक्षाएँ निकट होती तो एक-दूसरे से समस्याएँ डिस्कस होती, हल निकाले जाते। नए
जमाने की पढ़ाई सत्तर के दशक वाले इंजीनियर-वैज्ञानिक क्या जानें। सो कंप्यूटर
युग के बच्चों के नए ज्ञान से प्रभावित मम्मी-डैडी 'सी है' की मुद्रा में सिर
हिलाकर खामोश हो जाते।
बेचारे बच्चे! आधी-आधी रात तक मोबाइल कान से चिपकाये प्रॉब्लम साल्व करने की
कोशिश में हलकान होते रहते हैं। उन्हें फिक्र होती।
सबसे बड़ी प्रॉब्लम थी कि ईशा को देर रात तक वरुण के कानों में 'स्वीट
नथिंग्स' गुनगुनाए बिना नींद ही न आती थी। तब वरुण उसे बहला-फुसलाकर याद
दिलाता कि अगली सुबह साढ़े सात की बस से स्कूल पहुँचना जरूरी है। तब उनींदी
रात भी उनके साथ सो जाती और मम्मी-डैडी भी।
आगे की पढ़ाई के लिए एक दिल्ली में रह गया, दूसरा कलकत्ता चला गया। लेकिन
मोबाइल का चूहा तो उँगली छूते ही दुनिया भर की जासूसी कर सकता है। फिर
कंप्यूटर युग में ई-मेल, इंटरनेट। चैटिंग के अनेक जरिए! दोनों का फोन बिल
बढ़ता जाता, मम्मी-डैडी जेब खर्च बढ़ा देते। छुट्टियों में दूरियाँ पाट दी
जाती। ऊँची-पढ़ाई, जाहिर है खर्चे भी ऊँचे होते-जाते।
उनके प्यार का इजहार करने के निजी तरीके थे। पता नहीं पुरानी पीढ़ी के
प्रेमियों की तरह उन्होंने किताबों में खत, गुलाब या पेपर्स रखे या नहीं, पर
नए प्रचलन के मुताबिक वेलेंटाइन वीक मनाना वे भूले नहीं। वहाँ प्रपोज डे,
चॉकलेट डे, प्रोमिस डे, किस डे वगैरह पूरे जोशोखरोश से मनाए जाते। यों तकनीकी
संस्थाओं की ऊँची पढ़ाई तक पहुँचते, उन्होंने जुदाई की व्यथा भी सही। पर
एक-दूसरे को मिस करने के बावजूद पढ़ाई को दूसरे पायदान पर गिरने नहीं दिया।
बड़े हैरान थे कि तमाम मस्तियों और वक्त की बरबादी के बाद भी दोनों बच्चे
अच्छे प्वाइंट्स ले आए। पता नहीं कैसे।
अब, जब वे मल्टीनेशनल कंपनियों में लगभग सेटेल होते नजर आए, नौकरी में, दो
सालों में दो जम्प भी मिले, तो अचानक वैलेंटाइन वीक का 'ब्रेक अप डे' कैसे आ
गया। यह बात न उनकी समझ में आई और न उनके मम्मी-डैडी के। यों भी उनके
मम्मी-डैडी काफी कुछ समझने का माद्दा रखने के बावजूद, बच्चों की कई बातें
समझकर भी समझ नहीं पा रहे थे।
वरुण को कैंपस सेलेक्शन में अमेरिका की कंपनी का जॉब ऑफर आया, पर उसने मुंबई
की कंपनी ज्वाइन की। उनके मम्मी-डैडी थोड़े चकित हुए कि आज तो लड़के होश
सँभालते ही अमेरिका के सपने देखने लगते हैं। परीक्षा के नतीजे निकलने से पहले
ही एंट्रेंस एग्जाम की तैयारियाँ करते हैं। इसकी तो बड़े पैकेज वाली नौकरी
झोली में आ गिरी, पर लड़के ने सँजीदा चेहरा बनाए हुए कहा, 'मम्मा! वहाँ ठंड
ज्यादा है, मेरे दोस्त भी यही हैं। मैंने जो कंपनी ज्वाइन की, वहाँ हर दूसरे
महीने अमेरिका, यूरोप का ट्रिप लगता है। तुम तो जानती हो, हम अब ग्लोबल हो गए
हैं। अमेरिका जाने के लिए, वहाँ बसना अब जरूरी नहीं।'
डैडी आश्वस्त नहीं हुए, तुम इंडिया में ही रहो, यह तो हम भी चाहते हैं, पर
कुछेक साल वहाँ के अनुभव तुम्हें फायदा ही पहुँचाते।
वरुण दोस्त बनाने में माहिर है, जहाँ जाता है, दोस्त बनाता है। वहाँ भी दोस्त
बना सकता है। ठंड? वहाँ तो घर, दफ्तर, कारों-मॉलों में सभी जगह ठंड भगाने के
इंतजाम हैं। वरुण के कारण डैडी को जमे नहीं, तजुरबेकार हैं, कोई वजह तो है,
सूँघ गए, पर समझदारी और वक्त की नजाकत जानकर चुप रहे, आशीर्वाद दिया, जो ठीक
समझो करो, हम तुम्हारे साथ हैं, का आश्वासन भी।
ईशा को जरूर लगा, उसे भी अमेरिका में नौकरी का ऑफर आता, तो दोनों साथ ही चले
जाते, वह वरुण को मनाती, पर उसे तो पहले ही मुंबई में अच्छी नौकरी मिल गई थी।
शायद वरुण के मुंबई में नौकरी करने की एक वजह यह भी हो। यों वह कहता है कैरिअर
के बीच लड़की आ जाए, उसे मंजूर नहीं। वरुण मम्मी से कोई बात छिपाता नहीं,
अच्छा रैंपो है दोनों के बीछ।
इसी रैंपो के चलते वरुण ने मम्मी को इत्तला दी कि उसने एक सी-फेसिंग
अपार्टमेंट किराए पर लिया है। थ्री बेडरूम का खूबसूरत फ्लैट है, तुम देखोगी तो
बहुत अच्छा लगेगा। शाम को जब डूबते सूरज की किरणें समुद्र पर पड़ती हैं तो
तुम्हें वह पोएट याद आएगा, जिसने कहा था, 'वाटर सा इट्स लॉर्ड एंड ब्लड' 'पानी
ने अपना प्रिय देखा और शर्मा कर लाल हो गया।)'
वरुण की माँ अँग्रेजी साहित्य पढ़ाती हैं। बचपन में कभी जिक्र किया होगा बेटे
से, जो उसे सी-फेसिंग अपार्टमेंट से समुद्र में सूरज की ललाई देखकर याद आया।
मम्मा ने फोन पर खनक भरी मीठी हँसी सुनी, लगा, बेटा कुछ ज्यादा ही रोमांटिक हो
गया है।
"किराया बहुत होगा। अभी तो नई नौकरी है।"
"हम शेयर करेंगे मम्मा। चिंता न करो।"
बेटा समझदार है, फिजूलखर्ची नहीं करेगा। शौकीन तबीयत है। दो-तीन लड़के साथ
रहेंगे तो जरूरत के वक्त एक-दूसरे का सहारा भी बनेंगे। मॉडर्न मम्मी के भीतर
बैठी थी पुरानी माँ की चिंताएँ।
महीना भर बाद वरुण घर आया। खूब खुशी से मम्मा से कहा, मम्मा! मैं ईशा के साथ
फ्लैट शेयर कर रहा हूँ। मम्मा इस बेतकल्लुफ सूचना के लिए तैयार नहीं थी। उसका
आधुनिकता-बोध बेटे की भूचाली सूचना से हिल गया।
ईशा के मम्मी डैडी? यानी कि उन्होंने बेटी को तुम्हारे साथ रहने की इजाजत दी?
मम्मा! किस जमाने में रह रही हो? ईशा मेरे बराबर ही पढ़ी-लिखी है, बराबर वेतन
पाती है। माँ-बाप को भारी चेक्स भेजती है। उसे तो हक है अपने फैसले अपने आप
लेने का।
सो तो है, लेकिन यह लिव-इन रिलेशनशिप? हमारे यहाँ तो यह कभी नहीं हुआ।
मम्मा, जो आज हो रहा है, वह क्या पहले कभी होता था? आज तुम्हारी बाई के पास भी
सेलफोन है। हम आज कंप्यूटर क्रांति के युग में जी रहे हैं, ग्लोबल वर्ल्ड में।
मम्मा! मैंने कभी नहीं सोचा था कि तुम अभी भी पुरानी लीक पीटोगी।
सँभलते-सँभलते मम्मा ने पूछा, क्या शादी करोगे?
नहीं मम्मा! अभी क्या शादी-वादी का चक्कर? इस बारे में सोचा भी नहीं।
वरुण बेटा।
मम्मा! इन बातों पर ज्यादा मत सोचो। जानती हो, हम स्कूल-फ्रेंड्स रहे हैं।
एक-दूसरे को समझते हैं। अभी हमारे सामने कई चैलेंजेज हैं। शादी का खटराग पालने
की उम्र नहीं है। मैंने तुम्हें बताना ठीक समझा। मैं नहीं चाहता कोई दूसरा
तुम्हें मेरे बारे में ऐसा कुछ कहे, जो मैं तुमसे शेयर न करूँ।
वरुण की मम्मा के माध्यम से डैडी जी तक बात पहुँची, तो वे आगबबूला हो गए। पैर
पटके, जमाने की ऐसी-तैसी की। एकाध पैग ज्यादा लिया, फिर दोनों ने मिलकर शांत
मन से सोचा कि बेटे के निर्णय पर कुछ भी सोचने का मतलब अब कुछ नहीं। अच्छा है
उसके लिए मंगलकामनाएँ करो!
डैडी ने भारी मन से माना कि बेटे को अब पिता के भारी चेकों की जरूरत नहीं, अब
उसे रेबॉक शू, पार्कर पेन, टैब-शर्ट्स, जिवो, बनाना रिपब्लिव, राल्फ लोरेन,
जेफरी बेन और जाने-कौन-कौन ब्रैंड खरीदने की हैसियत बन गई है।
तुम इस तरह क्यों सोचते हो? बेटा है हमारा। महीने दो महीने में जो मिलने तो
आता है न हमसे। अच्छे कीमती उपहार क्या हमारे लिए नहीं लाता?
वरुण की माँ वक्त की रफ्तार और नजाकत, समझदार पति को भी समझा-बहला लेती है,
अपना और पतिदेव का ब्लडप्रेशर नार्मल रखने की कोशिश करती है।
हाँ! अब जन्मदिन और नए साल का उपहार देना ही रिश्ता निभाना हो गया है।
बेटा अब बड़ा हो गया है, जमाने का चलन समझता है।
ऐसे समझौतावादी संवाद यदा-कदा उनके बीच होते रहते हैं।
ईशा के मम्मी-डैडी ने पहले-पहले तो बेटी को खूब समझाया, ऊँच-नीच सिखाई, यह भी
कहा कि जमाना कितना बदल जाए, इतना जान लो कि हर सही-गलत का खामियाजा लड़के को
नहीं, लड़की को ही भुगतना पड़ता है।
ईशा बचपन से ही जिद्दी रही है। तीन बहनों में सबसे छोटी होने के कारण लाड़
थोड़ा ज्यादा मिला हो शायद, पर उसकी जिद चलने की वजह उसका जहीन होना भी है।
पढ़ाई में वह हमेशा तेज रही है। आई.आई.टी. में वह, फाइव प्वाइंट समवन, न रहकर
नाइन प्वाइंटर रही है। मम्मी-डैडी और बहनों पर उसका खासा दबदबा है। शक्ल सूरत
से भी अच्छी खासी इस लड़की की किशोरावस्था से ही संजीदा और संवेदनशील वरुण की
दोस्ती मिली। दोस्ती में, वीक एंड्स में साथ रहना, रेस्तराँ शापिंग,
पिक्चर-विक्चर देखना तो चलता ही रहता था। डैड ज्यादा बिजनेस टूर पर रहते,
मम्मा ने एकाधिक बार चेताया कि देर रात घर लौटना अच्छी बात नहीं, आखिर हम एक
समाज में रहते हैं। लोग क्या कहेंगे, वगैरह।
ईशा ने पहले-पहले खामोश नकार से उत्तर दिया। बाद में डंके की चोट पर ऐलान किया
कि वह अपना भला-बुरा समझती है। वह जिस युवा समाज में रहती है उसकी
रीति-नीतियों से वाकिफ है। आप के समाज से उसका कोई लेना-देना नहीं है। आप अभी
उन्नीसवीं सदी में जी रहे हैं।
बाद में उसने मम्मा को प्यार से चेताया कि मिडिल क्लास में जन्म लेना तो उसकी
मजबूरी थी, पर मिडिल क्लास मेंटेलिटी से उसे सख्त नफरत है।
लेकिन बेटी, हमें जीना तो इसी मिडिल क्लास की मान्यताओं के हिसाब से है।
नहीं मम्मा! मैं अपना क्लास आप बनाऊँगी। आप मेरे लिए परेशान न हों। जो भी
सही-गलत मेरे साथ होगा, मैं खुद ही उसकी जिम्मेदार हूँगी।
मम्मा-बेटी के बीच जो भी संवाद हुए हों, निष्कर्षस्वरूप मम्मा ने मुँह सी
लिया। ज्यादा जोर-जबर से बेटी घर के बर्तन-भाँड़े न पटकने लगे, जैसे बचपन में
जिद पर आने से पटकती थी, सो जो ठीक समझो करो की स्वीकारोक्ति से बेटी को
अभयदान दे दिया। उसकी दो बड़ी बेटियों की भी चिंता करनी थी। वे न ईशा जैसी
जहीन थी और न जिद्दी, सो उन्हें समझना-सिखाना थोड़ा आसान भी था।
ईशा के डैडी से बात करके इस बात को मद्देनजर रखकर एक ही बात कही, वरुण को शादी
के लिए राजी करो।
ईशा-वरुण एक नई दुनिया में प्रवेश कर चुके थे। वहाँ सब कुछ उनकी अपनी पसंद का
था। घर की भीतरी सज्जा से लेकर बाहरी व्यापार तक उनमें किसी का दखल उन्हें
मंजूर नहीं था।
अच्छा ही चलता रहा था सब कुछ। तीनेक महीने दोनों ने हवा के पंखों पर सवार होकर
गुजारे। देर शाम तक ऑफिस, बचा समय साझा।
वरुण के मम्मा-डैडी और ईशा की मम्मा (डैडी नहीं) बारी-बारी से बच्चों का घर
देखने आए। वरुण की मम्मा तो अभिभूत थी। खिड़की से बाहर सागर पर सूरज के अक्स,
पानी में पिघला सोना घोल देते, हवाएँ तन-मन की थकान भुला देती। भीतर शौक से
खरीदा घर का सामान। फ्लैट स्क्रीन टीवी मायक्रोवेव से वाशिंग मशीन तक। मॉडर्न
किचन! गृहस्थी की शुरुआत? डैडी ने नोट किया, तीन बेडरूम में से एक ही बेडरूम
इस्तेमाल होता है।
वरुण-ईशा दोनों देर रात घर लौटते। बड़ी कंपनियों में फुरसतें कहाँ। आज इस
क्लाइंट से मीटिंग, कल उससे।
नई जिम्मेदारियाँ।
ठीक है, सब ठीक है। जैसे बच्चे खुश रहें, उसी में माँ-बाप भी खुश। वरुण के
डैडी भी अब नरम पड़ गए, आगामी बहू के लिए गिफ्ट्स खरीदने लगे, भावी योजनाएँ
बनने लगी। तब वरुण ने चेताया नहीं, यह सब अभी नहीं।
चार महीने भी न हुए कि वरुण की मम्मी-डैडी के पास वीकएंड में आकर बोला - आयम
गेटिंग बोर्ड मम्मा। (मैं बोर हो रहा हूँ माँ)
बोर? किससे? काम से? ऑफिस के माहौल से? मम्मा ने जानना चाहा।
नहीं, मम्मा! काम तो ठीक है।
मम्मा ने काम से बोर होने की सूची में शामिल सभी कारणों की जानकारी बेटे सेली।
उनमें कोई भी कारण वरुण की बोरियत की वजह नहीं थी।
वरुण की तनख्वाह अच्छी है, उसकी योग्यता के अनुसार! बॉस से अच्छा रैंपो है।
देर शाम तक काम करना तो अच्छे पैकेज की शर्त ही है और नई चुनौतियाँ उसे ताकत
देती हैं। फिर?
मैं खुद भी समझ नहीं पा रहा हूँ, उलझ-सा गया हूँ।
समझदार, जहीन, मेहनत और प्रेमिल बेटे की उलझन ने माँ की भी नींद उड़ा दी।
बच्चों की खुशी-फिक्रों और उलझनों में इन्वाल्व होने की सनातन आदतें तमाम
आधुनिक बोध के बावजूद गई नहीं। सलाह-मशविरा देने की आदत भी।
थोड़े दिन कहीं घूम आओ बेटा। काम का प्रेशर भी थकाता है कभी-कभी।
हूँ, नहीं, ऐसा कुछ नहीं, बेटे ने गोल-मोल जवाब दिया।
जल्दी ही दूसरे छोर से वरुण की मम्मी को नया इलहाम हो आया।
आंटी! ह्वाई डोंट यू मेक वरुण अंडरस्टैंड, ही हैज डिच्ड मी। (आप वरुण को क्यों
नहीं समझाती, उसने मुझे छोड़ दिया है।
यह ईशा थी।
कभी-कभी हैलो-हाय! कैसी हैं आंटी? की औपचारिकता के बाद अचानक ईशा, वरुण की माँ
के इतने करीब कैसे आई कि अपनी बनाई हदों से बाहर न सिर्फ आप निकल आई, बल्कि
वरुण की माँ को भी भीतर खींच लाई?
वरुण की माँ को ईशा सहमी-भीगी आवाज छू गई। घर आने पर पूछा, बेटे से, क्या बात
हुई है तुम दोनों के बीच?
कोई समस्या?
आई वांट माई स्पेस मम्मा! मोबाइल पर पजल साल्व करते वरुण बोला। मम्मा हैरान
थी, बेटे के स्पेस में कौन दखलअंदाजी कर रहा है?
वरुण मुंबई लौट आया। मम्मा-डैडी को असमंजस में छोड़कर।
ईशा हर दूसरे दिन वरुण की मम्मी को फोन करने लगी।
आंटी! वरुण मुझे शिफ्ट करने को कह रहा है।
आंटी! वह मेरे साथ ऐसा कैसे कर सकता है?
वरुण की माँ इस स्थिति में फँस जाएगी, ऐसा तो उसने दूर तक न सोचा था। उनकी
नितांत निजी दुनिया, अपने फैसले, उसमें उनके पाँव धरने की भी जगह न थी। न राय,
न मशविरा, सिर्फ सूचना भर देने की औपचारिकता। अब उनकी जरूरत क्यों आन पड़ी?
बड़ी-बड़ी कंपनियों को सलाह-मशविरा देने वाले, तेज-तर्रार युवा-द्वय के भीतर
यह कमजोर कोना कहाँ छिपा रह गया, जहाँ उनके अपने फैसले बेआब होकर उन्हें
चौराहे पर छोड़ गए। या नजदीकियों ने प्यार की हवाई उड़ान को धरती दिखाई?
वरुण की खींची लक्ष्मण रेखा को पार कर मम्मी, बेटे से रू-ब-रू हो गई। उसके
फैसलों, विश्वासों की याद दिलाई, जिन्हें उसने चाहने-न-चाहने के बावजूद
स्वीकार किया था। अब अचानक अलग होने के पीछे कुछ खास वजह तो होनी चाहिए। इस
तरह सोच-समझकर साथ रहने के बाद एकदम अलग होने की बात करना?
वरुण ने सभी प्रश्नों का एक ही उत्तर दिया - हाँ मम्मा! मैंने उसे अलग रहने को
कहा है। यह शिफ्ट नहीं करेगी, तो मैं ही दूसरी जगह चला जाऊँगा।
लेकिन फ्लैट का भारी किराया? यह क्या ईशा के साथ ज्यादती नहीं?
वह सब मैं दूँगा। उसे कोई परेशानी नहीं होगी। मैं, बस अकेले रहना चाहता हूँ।
लेकिन बेटे, ईशा मुझे बार-बार फोन करती है, उससे क्या कहूँ?
प्लीज मम्मा! आगे से उसका फोन मत उठाइए। वह बहुत इम्मैच्योर है। इस समस्या को
मैं खुद सुलझा लूँगा।
आप चिंता न करें।
लेकिन मम्मी को चिंता से छुटकारा मिल भी जाता, अगर ईशा बार-बार फोन पर रुँधे
गले से उसे वरुण को समझाने का इसरार नहीं करती। ईशा के साथ सहानुभूति होने के
बावजूद, मम्मी को सोच से छुटकारा नहीं।
ग्यारहवीं कक्षा में शुरू हुई इस प्रेम कथा के इम्मैच्योर से मैच्योर होने की
प्रक्रिया के बीच जो कुछ गुजरा होगा, वह ईशा-वरुण जानते होंगे। साथ रहने पर जो
उल्लास और आत्मीय उत्कर्ष उनकी रग-रग से फूट आता था, उसे तो वरुण की मम्मी ने
गहराई से महसूस किया था। तभी शायद उनके साथ रहने को उसने स्वीकृति दी या देनी
पड़ी थी। वह प्रेम घुटन कैसे बन गया?
अब अचानक तेज गति से दौड़ती उनकी गाड़ी, बीच सड़क के किस स्पीड ब्रेकर पर रुक
गई, इसका क्यों-क्या जानना लगभग असंभव था। क्योंकि वरुण ने मम्मी का फोन रिसीव
करना बंद कर दिया। जाहिर है मम्मी-डैडी को खुले सोच के लिए आजाद छोड़ दिया
वरुण ने। ईशा ने फोन कम कर दिए, पर जो भी किए विस्फोटक साबित हुए।
आंटी! आज वरुण की कार प्रभादेवी में रिता के अपार्टमेंट के बाहर देखी गई।
आंटी! रात वह अपने अपार्टमेंट भी नहीं लौटा था। मैंने उसका बेड देखा था।
आंटी! वह रिता से मेलजोल बढ़ा रहा है। वह बिल्कुल अच्छी लड़की नहीं है। वह
फास्ट है, ड्रिंक करती है। वह यह करती है... वह करती है।
रिता कौन है, यह मम्मी ईशा से जान गई, यह भी जान गई कि ईशा अपनी किसी सहेली के
साथ रहने लगी है। अपनी नौकरी भी करती है और वरुण की जासूसी भी।
हैरानी की बात! सुबह से रात तक काम करने वालों को जासूसी करने का वक्त कैसे
मिलता है?
लेकिन हैरानी की बात बिल्कुल नहीं! जासूस हायर किए जा सकते हैं। फिर वह यूटीवी
बिंदास चैनल है न? इमोशनल अत्याचार को भुनाने वाली। ईशा के पास कमरे की
डुप्लीकेट चाभी है ही। हिडन कैमरा फिट करवा सकती है।
टेंशन से वरुण की तबीयत खराब हो गई। छुट्टी लेकर घर आना पड़ा। कई दिन बुखार
नहीं उतरा। माँ ने ईशा से अलग होने की बात नहीं की। जैसे कुछ हुआ नहीं। लौटते
वक्त गुमसुम था। माँ गले मिली। खुश रहा करो। रिश्तों में कई मोड़ आते हैं।
'लाइज इज सैड मम्मा'। वरुण के भीतर जाने कितने भँवर घुमड़ रहे थे। माँ का
कलेजा चिर गया। इस पहाड़ लाँघने वाली उम्र में ऐसी हताशा।
'क्या बात है? ईशा के जासूस परेशान कर रहे हैं?'
वह अच्छी लड़की है। मुझे अलग नहीं होना चाहती।
तुम?
मैं नहीं जानता मम्मा? मुझे लगा कुछ देर हमें अलग रहना चाहिए। दरअसल वह मुझे
पल भर भी अकेला नहीं छोड़ती। बैचलर्स पार्टी में जाऊँ तो नाराज हो जाती है।
किसी दोस्त के साथ डिनर पर जाऊँ तो हंगामा खड़ा करती है। मेरे बिना क्यों जाते
हो? ऑफिस में भी देर हो जाए तो फोन पर फोन करती है। उसके इस व्यवहार से मुझे
घुटन होने लगी है। मम्मा! एक-दूसरे पर हावी होना ही प्यार है क्या? अभी से यह
हाल है तो अगर उससे शादी करूँ, तो मेरा साँस लेना भी मुश्किल हो जाएगा।
उसे समझा दो, समझ जाएगी।
नहीं समझती है। न्यूरोटिक हो जाती है।
अब तो सहेली के साथ रहती है।
हाँ! पर मुझे अकेला कहाँ छोड़ती है? इमोशनली ब्लैकमेल करती है।
यह रिता कौन है?
वरुण मुस्कराया। बादल छँट गया। उसी ने बताया होगा। वह तो मेरी पूरी जासूसी
करती है। फेसबुक पर कोई नई दोस्त तो नहीं है? मम्मा। रिता मेरी कलीग है।
कभी-कभी लंच साथ ले लेते हैं, दोस्ती है बस और कुछ नहीं।
प्यार में तो दूसरे को बरदाश्त करना थोड़ा कठिन होता है। वह तुम्हें बहुत
चाहती है। वरना चली गई होती तुम्हें छोड़कर। सुंदर है, अच्छी नौकरी है। क्या
दोस्त नहीं बना सकती?
वरुण के चेहरे पर झाईं-सी डोली - मैंने तो कह दिया, गो एहेड विद युवर लाइफ।
पर जानता हूँ उसका कोई ब्वाय फ्रेंड नहीं। मुझ पर पूरा अधिकार चाहती है।
डिमांडिंग बीवी की तरह पेश आती है। मेरी भी तो कोई निजी जिंदगी है मम्मा! पता
नहीं कैसे निभाती है आफिस के चैलेंजेज। उसे तो यह भी समझ नहीं आता कि हर
रिश्ते में थोड़ी संधि तो छोड़नी ही पड़ती है।
लेकिन यह आजाद रिश्ता तुम दोनों का साझा फैसला था। तब नहीं सोचा?
मैंने तो सोचा था हमारा यह रिश्ता जिंदगी को बेहतर शक्ल देगा। यहाँ न
गैर-जरूरी बंधन होंगे, न सामाजिक दबाव। हमारा रिश्ता हमें करीब लाकर भी मुक्त
करेगा।
दबाव को भावनात्मक भी होते हैं वरुण। मुक्ति कहाँ संभव है?
जानता हूँ। पर उन्हें हम आपस में मिल-बैठकर सुलझा सकते हैं। पर वह मानती ही
नहीं, एक ही रट लगाए बैठी है। 'मेरे पापा तुम्हें अपना दामाद मानते हैं।'
मैंने कभी कोई वादा नहीं किया शादी का। यहाँ अजीब जबरदस्ती है। एक तो काम का
दबाव। ऊपर से ईशा का दमघोंटू तनाव। वही मिडिल क्लास मेंटेलिटी, चाहे वह माने न
माने।
और तुम रिता के साथ खुश हो?
कोई नई शुरुआत?
प्लीज मम्मी! अब तुम ईशा की तरह बात मत करो। कहा न, वह मेरी कलीग है। पुरुष
दोस्त भी हैं, कभी-कभार लंच लेता हूँ उसके साथ। सच मानो तो ईशा मेरे जेहन पर
भी कुछ इस कदर हावी हो गई है कि किसी लड़की से जरा भी आत्मीय हो जाऊँ, तो उसका
चेहरा बीच में आ जाता है। उसकी आँख बराबर मेरे एकांत में खलल डालती है। मैं
परेशान हो जाता हूँ। मैं भी उसे भूलना नहीं चाहता। बस, अपने वजूद को बचाए रखना
चाहता हूँ।
काश मम्मा! वह इतनी-सी बात समझ लेती।
वरुण की भूरी पुतलियों में अवसाद की परछाईं बताती हैं कि वह अपने ही बनाए जाल
में उलझ गया है। न वह ईशा को भुलाना चाहता है और न ही उसे समझा पाता है कि
उसका सर्वग्राही प्यार उसे जकड़ने लगा है, जबकि वह उसे अपनी मुक्ति बनाना
चाहता था।
विदा में हाथ हिलाते माँ के भीतरी रसायन में भापीली हिलोर उठती हैं।
लाइफ इज सैड मम्मा!
वह चाहती है स्पीड ब्रेकर पर रुकी ईशा-वरुण की गाड़ी आगे-पीछे निकल ले। शायद
दोनों धक्का मारकर उसे बाहर निकाल भी दें। क्या कहा जा सकता है। अगले पल के
बारे में कुछ भी तो अनुमान नहीं लगाया जा सकता। सिर्फ उम्मीद की जा सकती है
'ओपन' रिश्तों का अंत भी ओपन हो सकता है।